नमस्कार दोस्तों,
दोस्तों जब महाभारत युद्ध में अर्जुन अपने सामने स्वयं से युद्ध लड़ने आये अपने परिजनों को देखते हैं तो वे कमजोर पड़ जाते हैं और कहते हैं की इनसे युद्ध अगर मैं जीत भी गया तो अपनों के क़त्ल का इलज़ाम लेकर मैं कैसे खुस रह पाउँगा और कैसे जी पाउँगा. तब कृष्ण अर्जुन से कहते हैं की हे अर्जुन यह युद्ध तुम्हारे और तुम्हारे परिजनों के बीच नहीं बल्कि सही और गलत, धर्म और अधर्म के बीच है. तुम अपने परिजनों का नहीं बल्कि अधर्म करने वालों और अधर्मियों का साथ देने वालों का क़त्ल कर रहे हो. तुम्हारे मन में यह दुविधा नहीं होनी चाहिए जो तुम्हे कमज़ोर बना रहा है. कृष्ण ने कहा की सारे रिश्ते नाते मोह माया सब तुम्हारे इस शरीर से बंधे हैं. तुम इसलिए दुखी हो क्योंकि तुम स्वयं को केवल एक शरीर मान रहे हो. पर तुम केवल एक शरीर नहीं हो. तुम आत्मा हो जो की अनगिनत जन्मों से अनगिनत शरीर और नाम के साथ इस धरती में बार बार आते हो. तुम मुझ परमात्मा का अंश हो. हे अर्जुन "मैं ही ईश्वर हूँ". ये तुम नहीं जानते पर मैं जानता हूँ.
दोस्तों कृष्ण द्वारा कहे गए इस एक वाक्य "मैं ही ईश्वर हूँ" इसके पीछे बहोत ही गहरा arth छिपा हुआ है. जिसका आज आधी से अधिक दुनिया गलत मतलब निकाल बैठी है और कृष्ण के जीवन से ज्ञान लेने के बजाये उन्हें भगवान मानकर केवल उनकी भक्ति करके सारे तकलीफों से मुक्ति पाना चाहते हैं. यही वजह है की आस्तिक और धार्मिक व्यक्ति और अधिक दुखों और तकलीफों से घिर जाता है.
दोस्तों यह तो हम सभी जानते हैं की हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु के अनेक अवतारों का जिक्र होता है पर केवल कृष्णा अवतार ही एक मात्रा ऐसा अवतार है जिसमे उन्होंने भागवत गीता का ज्ञान देते वक़्त उन्होंने स्वयं यह कहा की हे अर्जुन मई ही ईश्वर (भगवान) हूँ. पर यह बात मै जानता हूँ तुम या संसार में अन्य कोई नहीं. कृष्णा अवतार के अलावा अन्य किसी अवतार में उन्होंने ने अपने भगवान् होने की घोषणा नहीं की. पर क्या उनके द्वारा ऐसा कहे जाने का वही अर्थ है जो पूरी दुनिया समझती है और अब तक मानती आ रही है.
आप सभी इस बात पर जरा ध्यान दीजिये की यदि वे भगवान है तो क्यों इस संसार में वही लोग सबसे ज्यादा दुखी हैं जो अपना अधिकतर समय पूजा पाठ में लगाते हैं और उनकी आराधना करते हैं. आज मै आपको कृष्ण द्वारा कहे इस वाक्य के पीछे का वास्तविक अर्थ बताने जा रहा हूँ. अगर मै कहूँ की यह इस संसार का वह रहस्य है जिसे इस पूरी श्रीष्टि में केवल कुछ ही लोग जान पाए हैं तो यह गलत नहीं होगा. इस रहस्य को जानने वाले चाँद लोगों के नाम मै आपको बता दूँ.
भगवान कृष्ण के अलावा इस रहस्य को हनुमान, रावण, एकलव्य और कर्ण ही ऐसे हैं जिन्होंने इस धरती पर इस रहस्य को जान लिया था.
कृष्ण द्वारा कही गयी यह बात हमारे विश्वास का हमारे जीवन और सामर्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाता है. भगवान कृष्ण द्वारा इंसानों को दिया गया सबसे महत्वपूर्ण और अनेकों युगों तक काम आने वाला अचूक मंत्र या ज्ञान है " अहं ब्रम्हास्मि" यह वह मंत्र है जिसे जो भी मनुष्य अपने पुरे विश्वास के साथ अपने जीवन आचरण में उतार लेता है उसे कोई भी उपलब्धि हासिल करने से संसार की कोई भी शक्ति रोक नहीं सकती.
दोस्तों अहं ब्रम्हास्मि या मै ही ईश्वर हूँ का वास्तविक अर्थ यह है की हमें जो जीवन मिला है उसके ईश्वर हम ही हैं. हमारे जन्म के बाद हमारे किसी भी कर्म और उसके परिणाम पर कोई अन्य शक्ति हस्तक्षेप नहीं करती. हमारे जीवन के अंत तक हम जो भी कर्म करते हैं और जो भी परिणाम भुगतते हैं उसके लिए केवल हम ही जिम्मेदार होते हैं. हम अपने विश्वास की शक्ति से अपने सामर्थ्य को इतना बढ़ा सकते हैं की हम स्वयं ही ईश्वर बन सकते हैं. हमारे मस्तिष्क का हम केवल १० प्रतिशत ही उपयोग कर पाते हैं. तो सोचिये जब हम अपने विश्वास की शक्ति से अपने बुद्धि का १०० प्रतिशत उपयोग कर पाएंगे तो क्या हम उस ईश्वर की दी हुयी सारी शांति हासिल नहीं कर पाएंगे.
भगवान कृष्ण कहते हैं की यह श्रिस्ति मुझ से ही उत्पन्न हुयी है और मुझ में ही समां जायेगी. अर्थात यह श्रिस्ति पञ्चतत्वा से उत्पन्न हुयी है और मृत्यु के बाद उसी में समां जायेगी. सृजन से अंत तक के इस सफर के बीच यह श्रिस्ति केवल जीवों के विश्वास और जिज्ञासा के बदौलत इतना विकाश कर पायी है.
अगर पानी में पनपे प्रारंभिक जिव के अंदर भूमि तक पहुंचने की जिज्ञासा और स्वयं पर विश्वास नहीं पनपता तो आज हम इस दुनिया में जीवों की अनगिनत प्रजातियां नहीं देख पाते. तो दोस्तों यह पूरी दुनिया का विकाश केवल विश्वास के आधार पर ही टिका है. और वह विश्वास है स्वयं का स्वयं के जीवन का ईश्वर होने का. जो भी व्यक्ति खुद को ही अपना ईश्वर मानकर आगे बढ़ता है उसे संसार की कोई भी शक्ति कामयाब होने से रोक नहीं सकती.
आप सभी पाठकों को मेरा यह लेख कैसा लगा मुझे कमेंट करके बताएं. और मुझे फॉलो करना न भूलें. धन्यवाद्.
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